टेसू का रंग जब बड़ी बड़ी पिचकारियों से चलता तो तन मन को कर जाता शीतल.
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टेसू का रंग जब बड़ी बड़ी पिचकारियों से चलता तो तन मन को कर जाता शीतल।
रायबरेली लोक पर्व होली के वनस्पति रंग टेसू के फूल से शीतल बसंती रंग और लोकगीत फाग जुदा हो गया है ।टेसू के फूल से शीतल बसंती रंग इतिहास के पन्नों में गुम हो गया है होली के हुड़दंग में टोलियों का ढोल मजीरा की धुन में फगुआ गाते निकलना बंद हो चुका है। हाईटेक हुई होली के लोक परंपरा को पूरी तरह खत्म कर दिया है। होली के दिन डीजे और अश्लील गानों पर युवा नुक्कड़ चौराहों पर थिरकते है।
तीन दशक पूर्व फागुन मास लगते ही होली की मस्ती छाने लगती थी । टोलिया फाग गाने का अभ्यास करते और बड़े बुजुर्ग वनस्पति रंग बनाने की तैयारी में जुट जाते हैं जंगलों से टेसू के फूल तुड़वा कर एकत्र कराया जाता है और होली के एक दिन पहले कड़ाओ में उबालकर टेसू का बसंती रंग बनाया जाता था। टेसू का रंग जब बड़ी-बड़ी पिचकारियों से चलता तो तन मन शीतल कर जाता परंतु शीतलता प्रदान करने वाले रंगों का स्थान रसायनिक रंगो ने ले लिया है ।यह रंग त्वचा और नेत्र के लिए घातक है लोक गीतों में होली पर्व पर डेढ़ ताल ,तीन ताल और चौपाल में गाए जाने वाले फाग कि अपनी मस्ती होती थी ।पूरे गजई निवासी पंडित सदाशिव मिश्र बताते हैं कि फगवा आप टेलीविजन तक सीमित होकर रह गया है। "निमोहिया श्याम जहे छाये, पपीहा वही देश को जाना बसंत में आना और वन वन बिलखत-बिलखत है सत्यभामा मधुपुर छाए रहे घनश्याम या फागुन भर घर ही रहियो रसिया तुम बिन रजनी गुजरे ना सुरति विसरे ना जैसे फगुवा "अवध क्षेत्र की संस्कृति का दर्शन कराते हैं।
होली का प्रसिद्ध गीत फगुआ को बचाने का कोई सरकारी प्रयास भी नहीं हो रहा है पृथ्वी काल से ही यह गंगा जमुनी संस्कृति का दर्शन होता रहा है।प्राचीनकाल से ही यहां गंगा जमुनी संस्कर्ति का दर्शन होता रहा है। अवध क्षेत्र के नवाब शुजाउद्दौला भी होली पर फाग समारोह का आयोजन करते थे। इस समारोह में तन्जेब कुर्ता पैजामा में बड़ी संख्या में महिलाएं रंग खेलती वह फगुआ के गीतों के साथ झुमती थी । यह परंपरा 60 के दशक तक ही कायम रही और धीरे-धीरे गायब हो गई।
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