पंकज यानी कमल की प्रकृति ही कीचड़ में खिलना है लेकिन हमीरपुर का पंकज संभवत: इतना मजबूत नहीं था। इसीलिए उसने होम वर्क न करने की इतनी बड़ी सजा खुद को दी। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में सातवीं के अबोध बालक द्वारा मिट्टी का तेल छिड़क कर आत्महत्या करने का मामला गहरे तक उदास करने वाला है। यही वक्त है, जब यह परखा जाए कि व्यक्तित्व की बुनियाद में कहीं नमी तो नहीं रह गई। बुनियाद में नमी हो तो इमारत बनती ही नहीं है और बन भी जाए तो अधिक देर तक टिकती नहीं है।
पंकज कुमार की आत्महत्या सोचने पर मजबूर करती है कि क्या नई पौध के लिए शिक्षा या उससे जुड़ी अपेक्षाओं को बोझ असहनीय हो चला है? क्या होमवर्क का दबाव उन्हें तनावग्रस्त कर रहा है? क्या माता-पिता बच्चों की क्षमता जाने बगैर उन पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं? बच्चों के मन में क्या चल रहा है, उसे टटोलने की फुर्सत क्या किसी के पास नहीं है? दरअसल किसी भी मासूम हंसी के पीछे के दर्द देखने के लिए समय, संवाद और संवेदना चाहिए। दुर्भाग्यवश यही सब गायब प्रतीत हो रहा है। सबसे बड़ा पक्ष यह है कि दौर प्रतियोगी है तो वातावरण भी प्रतियोगी होगा। यही प्रतियोगिता कई बार गलाकाट भी बन जाती है।
लेकिन इस स्तर से ही बच्चों को सफलता को पचाने के साथ-साथ असफलता को पचाने की सीख भी दी जानी चाहिए। स्कूल से मिला काम न करने का अपराधबोध इतना बढ़ गया कि नन्ही जान ने स्वयं का खत्म ही कर डाला? यह असफलता से न निपट पाना नहीं तो और क्या है? क्या कोई अध्यापक या अभिभावक ऐसा सिखा रहे हैं? इस पर पूरा संदेह है क्योंकि संदेह करने के कारण हैं। सच यह है कि माता-पिता के साथ शिक्षकों का भी दायित्व है कि वे बच्चों के व्यवहार में आने वाले बदलाव पर नजर रखें। अगर बच्चे के व्यवहार में कोई अंतर आया है या वह चिड़चिड़ा हो रहा है तो उससे बात करें।
बच्चे को अकेला छोड़ने से बेहतर है कि उसकी समस्या जानें और उसे दूर करने के लिए प्रयास करें। इसी भाव को प्रदर्शित करती कई फिल्में भी बीते वर्षो में आई हैं जिन्होंने यह आगाह किया है कि तारे कहीं जमीन पर ही न खो जाएं। तकलीफदेह पक्ष यह भी है कि एक संभावनासंपन्न संसार इस त्रसदी से गुजरता हुआ मौत और मातम के फेर में फंस गया। जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो किताबें नहीं सिखाती हैं, कई विषय ऐसे हैं जिन पर किताबें मौन रहती हैं लेकिन तब यह बच्चे से जुड़े सभी पक्षों का दायित्व है कि वे नन्ही जान के स्तर पर उतर कर उसकी पीड़ा को समङों।
(स्थानीय संपादकीय हिमाचल प्रदेश)
पंकज कुमार की आत्महत्या सोचने पर मजबूर करती है कि क्या नई पौध के लिए शिक्षा या उससे जुड़ी अपेक्षाओं को बोझ असहनीय हो चला है? क्या होमवर्क का दबाव उन्हें तनावग्रस्त कर रहा है? क्या माता-पिता बच्चों की क्षमता जाने बगैर उन पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं? बच्चों के मन में क्या चल रहा है, उसे टटोलने की फुर्सत क्या किसी के पास नहीं है? दरअसल किसी भी मासूम हंसी के पीछे के दर्द देखने के लिए समय, संवाद और संवेदना चाहिए। दुर्भाग्यवश यही सब गायब प्रतीत हो रहा है। सबसे बड़ा पक्ष यह है कि दौर प्रतियोगी है तो वातावरण भी प्रतियोगी होगा। यही प्रतियोगिता कई बार गलाकाट भी बन जाती है।
लेकिन इस स्तर से ही बच्चों को सफलता को पचाने के साथ-साथ असफलता को पचाने की सीख भी दी जानी चाहिए। स्कूल से मिला काम न करने का अपराधबोध इतना बढ़ गया कि नन्ही जान ने स्वयं का खत्म ही कर डाला? यह असफलता से न निपट पाना नहीं तो और क्या है? क्या कोई अध्यापक या अभिभावक ऐसा सिखा रहे हैं? इस पर पूरा संदेह है क्योंकि संदेह करने के कारण हैं। सच यह है कि माता-पिता के साथ शिक्षकों का भी दायित्व है कि वे बच्चों के व्यवहार में आने वाले बदलाव पर नजर रखें। अगर बच्चे के व्यवहार में कोई अंतर आया है या वह चिड़चिड़ा हो रहा है तो उससे बात करें।
बच्चे को अकेला छोड़ने से बेहतर है कि उसकी समस्या जानें और उसे दूर करने के लिए प्रयास करें। इसी भाव को प्रदर्शित करती कई फिल्में भी बीते वर्षो में आई हैं जिन्होंने यह आगाह किया है कि तारे कहीं जमीन पर ही न खो जाएं। तकलीफदेह पक्ष यह भी है कि एक संभावनासंपन्न संसार इस त्रसदी से गुजरता हुआ मौत और मातम के फेर में फंस गया। जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो किताबें नहीं सिखाती हैं, कई विषय ऐसे हैं जिन पर किताबें मौन रहती हैं लेकिन तब यह बच्चे से जुड़े सभी पक्षों का दायित्व है कि वे नन्ही जान के स्तर पर उतर कर उसकी पीड़ा को समङों।
(स्थानीय संपादकीय हिमाचल प्रदेश)
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