मैं राजकपूर, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा जैसे निर्माता-निर्देशकों की फिल्में देखकर ही बड़ा हुआ हूं। पला-बढ़ा हिंदी फिल्मों के सितारों और निर्देशकों के बीच, लेकिन मैंने जब सोचा की मुझे फिल्मों में आना है तो मदद करने वाला कोई नहीं था। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है अच्छा ही हुआ कि किसी ने मदद नहीं की। मेरे पिता या मामाजी (ख्यात अभिनेता जितेन्द्र ) फिल्म इंडस्ट्री में हैं तो उनके लिहाज से एक आध मौका मुझे मिल जाता, लेकिन अपने पैरों पर तो नहीं खड़ा हो पाता। शुरुआत में मदद पाने वाले अगर आगे चलकर असफल हो जाएं तो वे फिर खड़े नहीं रह पाते। मुझे कभी कोई सहायता मिली नहीं। मैंने तो करीब 10-15 साल लगातार नाकामयाबी देखी। एक एक्टर (उफ़ ये मोहब्बत,1996) के रूप में भी और बतौर निर्देशक भी मेरी पहली फिल्म ‘आर्यन’ (2006) नाकाम रही। यही वजह है कि आज कामयाब होने पर भी मैरे पैर जमीन पर मजबूती से टिके हैं। मैं आज भी वही साधारण इंसान हूं।
सौजन्य :- दैनिक भास्कर ,25.01.2016,अभिषेक कपूर (काईपो छे’ और ‘रॉक ऑन’ जैसी अलग शैली की फिल्मों के पुरस्कृत निर्देशक )
कहते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री के स्थापित परिवारों से जुड़े बच्चों को आसानी से मौके मिल जाते हैं। कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में थोड़े भी कनेक्शन हो तो चीजें आसान हो जाती हैं, लेकिन मैंने अपना रास्ता खुद ही निकालने की कोशिश की। कई लोग मुझे जानते थे, लेकिन नाकामयाबी के दौर में किसी ने मेरा हाथ नहीं थामा। विडंबना यह थी कि किसी न्यू-कमर की तरह मैं गांव भी नहीं जा सकता था, क्योंकि मेरा तो गांव भी यही मुंबई ही है। मेरे सामने खुद को साबित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
शुरुआत में मैंने एक्टिंग की, लेकिन फिल्में ऐसी पिटी की मैं गिरता ही गया। बहुत फ्रस्ट्रेशन होता था। फिर तय कर लिया कि मुझे एक्टिंग करनी ही नहीं है। एक-दो साल घर पर बैठा रहा। उस दौरान मैंने एक कहानी लिखी। कहते हैं कि कला जिंदगी को नए मायने देती है। मैं खुद ही अपनी कहानी से प्रभावित हो गया और इसने मेरी जिंदगी को नया अर्थ दिया। मैंने तय किया कि इसे परदे पर लाऊंगा और खुद ही निर्देशित करूंगा, जबकि इसका कोई अनुभव नहीं था। मेरे दोस्त सोहेल खान ने मेरा समर्थन किया और वे हीरो बनने के लिए राजी हो गए। फिल्म बनी पर चली नहीं। मैंने हार नहीं मानी तथा एक और फिल्म बनाई ‘रॉक ऑन’ (2008)। तब कही जाकर कुछ सफलता हासिल हुई।
शुरुआत में मैंने एक्टिंग की, लेकिन फिल्में ऐसी पिटी की मैं गिरता ही गया। बहुत फ्रस्ट्रेशन होता था। फिर तय कर लिया कि मुझे एक्टिंग करनी ही नहीं है। एक-दो साल घर पर बैठा रहा। उस दौरान मैंने एक कहानी लिखी। कहते हैं कि कला जिंदगी को नए मायने देती है। मैं खुद ही अपनी कहानी से प्रभावित हो गया और इसने मेरी जिंदगी को नया अर्थ दिया। मैंने तय किया कि इसे परदे पर लाऊंगा और खुद ही निर्देशित करूंगा, जबकि इसका कोई अनुभव नहीं था। मेरे दोस्त सोहेल खान ने मेरा समर्थन किया और वे हीरो बनने के लिए राजी हो गए। फिल्म बनी पर चली नहीं। मैंने हार नहीं मानी तथा एक और फिल्म बनाई ‘रॉक ऑन’ (2008)। तब कही जाकर कुछ सफलता हासिल हुई।
इस प्रकार मेरी यात्रा समुद्र के सबसे गहरे तल में पड़े पत्थर से ही शुरू हुई। उसके नीचे तो कुछ होता ही नहीं। थोड़ा-सा ऊपर आने की कोशिश की तो सीधे वही पहुंच गया। मैं भगवान का शुक्रगुजार हूं कि इस दौरान मुझे काफी कुछ सीखने को मिला, लेकिन कठिनाई हमेशा मेरी जिंदगी का हिस्सा बनी रही। अगर किसी कलाकार को कहानी तक सुनानी हो तो भी मशक्कत करनी पड़ती है। मैंने ऐसे दिन भी देखे जब किसी निर्माता से मिलने जाता था तो वो मुझे पानी के लिए भी नहीं पूछता था। इससे नाकामी का डर खत्म हो गया और मैं आज नए प्रयोग करने से नहीं घबराता। फिल्म और कहानी की प्लानिंग करता हूं तो कहानी की डिमांड के अनुसार चलता हूं। यह नहीं देखता की ट्रेंड क्या है या कारोबार क्या होगा। अपने फैसले या सोच पर भी मुझे कोई संदेह नहीं होता। असुरक्षा का कोई अहसास मुझ में नहीं रहा।
‘रॉक ऑन’ और ‘काय पो छे’ सफल हुईं। मैं इसे ऊपर वाले की देन मानता हूं कि मैं अपनी फिल्मोें में कला और व्यावसायिक स्तर पर संतूलन स्थापित कर पाता हूं। मैं 100 करोड़ बनाने या आलोचकों को खुश करने के लिए फिल्में नहीं बनाता। इन दोनों तत्वों का मुझे डर है और असुरक्षा। मुझे पता कि मुझे सिर्फ अच्छी कहानी लेकर दर्शकों को अच्छे तरीके से सुनानी है। मेरा मानना है लोगों की रुचि लोगों में ही होती है। आप रॉक म्यूजिक पर फिल्म बनाओ या कश्मीर पर, अगर किरदार से लोग खुद को जोड़ सकें, तो वही सफलता है। फिल्में इसलिए बनाता हूं कि लोगों को मजा आए और वे भी अपने साथ कुछ लेकर जाएं। उनके टिकट का पैसा बेकार जाए। कहानी कुछ दिनों तक उनके जेहन में बनी रहे। मेरी फिल्में एक-दूसरे से एकदम अलग होती हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि जिसने al145रॉक ऑन’ बनाई उसी ने ‘काय पो छे’ बनाई और वही ‘फितूर’ ला रहा है अब। इसका कारण यही है कि जो कहानी कहती है, वही मैं करता हूं। मैं चाहता हूं कि हर साल एक फिल्म बनाऊं, लेकिन हो नहीं पाता। मैं कहानी में पूरी जान लगा देता हूं। जितना हो सके डिटेल में काम करता हूं। फिल्म से अलग अनुभव मिलना जरूरी है।
फिल्म बना रहा होता हूं तो दो दुनिया में रहता हूं एक हमारी असली दुनिया और एक मेरी फिल्म की दुनिया। संगीत मेरी फिल्मों में ठूंसा नहीं होता। मेरी फिल्मों को मैं गाने दिखाने के लिए नहीं रोक सकता। मेरे पास इतनी कहानी है कहने के लिए की गाना भरने की जरूरत नहीं। हर फिल्म की अपनी किस्मत होती है, केवल एक्टर्स से फिल्में नहीं चलती। खासकर जिस तरह की फिल्में मैं बनाता हूं वे तो तकनीशियन से लेकर संगीत , कैमरामैन, कलाकार सभी के सहयोग से बनती है। यह एक लहर के मानिंद है, जिसमें कई परफेक्शन वाले दिमाग बेहतर से बेहतर काम करते हैं। मेरा साहित्य से जुड़ाव जरूर है, लेकिन ऐसा नहीं कि किताब से ही फिल्म बना दी। ‘काय पो छे’ में मैंने किताब से लिए किरदार लिए, लेकिन फिल्म का सेकंड हाफ तो बिल्कुल अलग था।
पूरे संघर्ष का निष्कर्ष यह है कि कुछ करने की चाह होनी चाहिए। आप जितनी बार गिरे उतनी बार खड़े होना चाहिए। खड़ा होना नहीं छोड़ना चाहिए… मरते दम तक। एक दिन आपका भी होगा उस दिन आप केवल हर सफलता के हकदार होंगे बल्कि मजबूत भी होंगे। मैं आगे के बारे में नहीं सोचता। कोई इंसान या कोई आर्ट, कविता, पर्यावरणविद या स्पोर्ट्स मैन या पेंटिंग अगली कहानी की प्रेरणा दे सकती है।
पूरे संघर्ष का निष्कर्ष यह है कि कुछ करने की चाह होनी चाहिए। आप जितनी बार गिरे उतनी बार खड़े होना चाहिए। खड़ा होना नहीं छोड़ना चाहिए… मरते दम तक। एक दिन आपका भी होगा उस दिन आप केवल हर सफलता के हकदार होंगे बल्कि मजबूत भी होंगे। मैं आगे के बारे में नहीं सोचता। कोई इंसान या कोई आर्ट, कविता, पर्यावरणविद या स्पोर्ट्स मैन या पेंटिंग अगली कहानी की प्रेरणा दे सकती है।
मेरी इच्छा बस इतनी है कि खुद को रिपीट करूं। अलग करूं। नई दुनिया खुद भी देखूं और सबको दिखाऊं। मैं हर नई फिल्म शुरू करते समय सेट पर एक बच्चे की तरह जाता हूं, बच्चे की तरह देखता और ऑब्जर्व करता हूं। तभी नया नज़रिया ला सकता हूं। बच्चे की तरह हर चीज समझता हूं। इनोसेंस और विनम्रता आपको बहुत कुछ सिखाते हैं।
सौजन्य :- दैनिक भास्कर ,25.01.2016,अभिषेक कपूर (काईपो छे’ और ‘रॉक ऑन’ जैसी अलग शैली की फिल्मों के पुरस्कृत निर्देशक )
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