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अधिक अंक की आत्मघाती दौड़

प्रधानमंत्री मोदी को भी अपने मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ में बोर्ड इम्तिहान दे रहे बच्चों को संदेश देना पड़ा। जाहिर है कि परीक्षा, उसके परिणाम और ज्यादा नंबर लाने की होड़ बच्चों का बचपन और सीखने की स्वाभाविक गति, दोनों को प्रभावित कर रही है।
पिछले साल मध्य प्रदेश में कक्षा दस के बोर्ड के इम्तिहान के नतीजे आने के 12 घंटों में आठ बच्चों ने आत्महत्या कर ली और उनमें से भी आधी बच्चियां थीं। वहां बिताया समय और बांची गई पुस्तकें उनको इतनी-सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पायीं। परीक्षा देने जा रहे बच्चे खुद के याद करने से ज्यादा इस बात से ज्यादा चिंतित दिखते हैं कि उनसे बेहतर करने की संभावना वाले बच्चे ने ऐसा क्या रट लिया है जो उसे नहीं आता। असल में प्रतिस्पर्धा के असली मायने सिखाने में पूरी शिक्षा प्रणाली असफल ही रही है।
यह तो साफ जाहिर है कि बच्चे न तो कुछ सीख रहे हैं और न ही जो पढ़ रहे हैं, उसका आनंद ले पा रहे हैं। बस एक ही धुन है या दबाव है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं। कई बच्चों का खाना-पीना छूट गया है। याद करें चार साल पहले के अखबारों में छपे समाचारों को, जिनमें एनसीईआरटी और सीबीएसई के हवाले से कई समाचार छपे थे कि अब बच्चों को परीक्षा के भूत से मुक्ति मिल जाएगी। अब ऐसी नीतियां व पुस्तकें बन गई हैं जिन्हें बच्चे मजे-मजे पढ़ेंगे। 10वीं के बच्चों को अंक नहीं, ग्रेड दिया जाएगा लेकिन इस व्यवस्था से बच्चों पर दबाव में कोई कमी नहीं आई है। यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना न सिखा सके, जो विषम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना न सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है ?
बोर्ड के परीक्षार्थी बेहतर स्थानों पर प्रवेश के लिए चिंतित हैं तो दूसरे बच्चे पसंदीदा विषय पाने के दबाव में। एक तरफ स्कूलों को अपने नाम की प्रतिष्ठा की चिंता है तो दूसरी ओर हैं मां-बाप के सपने। बचपन, शिक्षा, सीखना सब कुछ इम्तिहान के सामने कहीं गौण हो गया है। रह गई हैं तो केवल नंबरों की दौड़। सीबीएसई की कक्षा 10 में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत से बच्चों के कम अंक रहे। जबकि हिंदी के मूल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखंे तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है। कोई बच्चा ‘‘हैं’’ जैसे शब्दों में बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी को छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है। कोई बच्चा ‘स’, ‘ष’ और ‘श’ में भेद नहीं कर पाता है। स्पष्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए। यह सरासर नकारात्मक सोच है।
छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी। समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया। फिर देश की राजनीति विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही। वास्तव में परीक्षाएं आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके बावजूद बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट स्पर्धा में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं।
कुल मिलाकर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है। सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है-परीक्षा में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना, विषयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं। सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है। लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विषय या संस्था में प्रवेश न मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं।
आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया। कुल मिलाकर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक-दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई। क्या हम कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे?
– पंकज चतुर्वेदी
सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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