स्मार्ट तो ठीक, पर नए शहर कहां? (अमर उजाला)
थकी-हारी शहरी जिंदगी के दर्द को बेहतर ढंग से बयान करने के लिए ही गुलजार ने ये पंक्तियां लिखी थीं, जो शायद राजनीतिक वायदों के पूरा होने के कभी खत्म न होने वाले इंतजार को भी व्यक्त करती हैं। युवा, मध्यवर्ग और शहरी भारतीय, नरेंद्र मोदी के 2014 के चुनावी अभियान के ये सभी मुरीद थे। इसकी वजह यह थी कि इसमें समाधान का वायदा था। इसमें सबसे शानदार वायदा था सौ स्मार्ट शहर बनाने का। अपनी बदहाल जिंदगी से त्रस्त शहरी भारतीयों को इस वायदे में बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखी। मोदी ने इस चुनौती में मौका देखा, और एक कामयाब नारे का सूत्रपात कर दिया। मगर यह कोई चुनावी नारा नहीं था। भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनावी घोषणापत्र में कहा गया था, ′हम आधुनिकतम तकनीकों और बुनियादी संरचनाओं का उपयोग करते हुए सौ नए शहर बनाने की शुरुआत करेंगे।′ इस वायदे को 2014 के बजट में भी देखा जा सकता है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके लिए 7,060 करोड़ रुपयों की राशि आवंटित करते हुए कहा था, ′लोगों की लगातार बढ़ती तादाद को संभालने के लिए नए शहरों का निर्माण नहीं किया जाता, तो फिलहाल जो शहर हैं, वे जल्द ही रहने लायक नहीं रहेंगे।′ गौरतलब है कि भाजपा के घोषणापत्र और मोदी सरकार के बजट, दोनों में ही ′नए शहरों′ की बात की गई है।
चौदह महीने बाद यह कहा जा सकता है कि देश के पास स्मार्ट शहरों को लेकर एक कार्यक्रम है। हालांकि वृहत कार्यक्रम की शुरुआत की बाट जोहने वाले मतदाताओं का उत्साह धरा रह गया है। इस कार्यक्रम को लेकर यही कहा जा सकता है, ′न खुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम′। देश में कुल 98 स्मार्ट शहर होंगे, लेकिन इनमें नए शहर नहीं होंगे। स्मार्ट शहर को एक ऐसे शहर के तौर पर परिभाषित किया जाता है, जो अपने निवासियों को बेहतर जिंदगी देने के लिए जरूरी बुनियादी संरचना रखता हो। जहां निवासियों के हितों का विशेष ध्यान रखते हुए स्वच्छ व टिकाऊ पर्यावरण के साथ-साथ स्मार्ट समाधानों को तरजीह दी जाती हो। हालांकि फिलहाल यह साफ नहीं है कि स्मार्ट शहरों को लेकर दूसरे देशों से जो समझौते हुए हैं, उनका क्या होगा। दरअसल, स्मार्ट सिटी की परिभाषा क्या होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। इसके लिए फंडिंग की जो व्यवस्था है, वह पूरी तरह से अपर्याप्त दिख रही है। चुने गए शहरों को दो करोड़ रुपये मिलेंगे। वहीं, दूसरे चरण में चुने गए 20 शहरों को पहले वर्ष 200 करोड़ और फिर अगले तीन वर्षों तक प्रत्येक शहर को हर वर्ष 100 करोड़ रुपये मिलते रहेंगे। केंद्र सरकार ने कुल तीन लाख करोड़ रुपये का वायदा किया है, जबकि हकीकत यह है कि अगले दस वर्षों में शहरी बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए 39 लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी।
अब उत्तर प्रदेश को ही लीजिए। क्षेत्रफल के मामले में यह तकरीबन यूनाइटेड किंगडम (यानी इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड) के बराबर है, मगर इसकी आबादी वहां की तिगुनी से भी ज्यादा है। कृषि से उद्योग व सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में तब्दील होने के साथ ही उत्तर प्रदेश में शहरीकरण का बढ़ना तय है। ऐसे में, इस राज्य को नए शहरों की जरूरत है, न कि पुराने 13 शहरों के कायाकल्प की। नहीं तो इस कार्यक्रम की हालत भी जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन की तरह होगी, जिसमें सरकार खर्च तो खूब करेगी, मगर नतीजे न के बराबर होंगे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी के एक शानदार विचार को उनकी सरकार ने ′सब को खुश करने वाले रद्दोबदल′ में तब्दील कर दिया है। इससे इन्कार नहीं कि शहरी भारत और स्थानीय सरकारों को मदद और नए विचारों की जरूरत है। यह भी सही है कि अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत) की अपनी जरूरत है। मगर नए शहरों के विचार की अनदेखी क्यों की जा रही है? ऐसा नहीं है कि नए शहरों के निर्माण से सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी, मगर कुछ बदलाव तो जरूर आएगा। अफसोस की बात यह है कि नए शहरों के वायदे को महज मरम्मत के एक कार्यक्रम से प्रतिस्थापित किया जा रहा है। आलम यह है कि आज शायद ही ऐसा कोई शहर हो, जो पूरी ईमानदारी से चौबीस घंटे जलापूर्ति का वायदा कर सके। मुंबई को छोड़कर देश का कोई भी शहर बिजली आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर होने का दावा नहीं कर सकता। सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था ऐसी है कि मध्यवर्गीय भारतीयों के दिन के दो से चार घंटे काम पर जाने और लौटने में खर्च हो जाते हैं।
भारत में तकरीबन 53 शहर दस लाख से ज्यादा आबादी वाले हैं। ये शहर जनसंख्या विस्फोट के कगार पर खड़े हैं। भूमि अधिग्रहण जरूर एक मुद्दा है, मगर उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस परियोजना को बेहतर ढंग से नियोजित कर एक रास्ता दिखाया है। निवेश के केंद्र स्थापित करने की नीति में खेती की जमीन पर खास ध्यान दिया जाता है, क्योंकि इसे अधिगृहीत करना आसान होता है। नए शहरों के निर्माण की नीति को इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए। शुरुआत दस स्मार्ट शहरों के निर्माण से की जा सकती है। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि लोगों की आकांक्षाएं पूरी होने के साथ ही विकास को भी गति मिलेगी। जीडीपी के नए आंकड़े बताते हैं कि विकास के लिए जरूरी यह है कि भारत बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाए। नए शहरों का निर्माण अर्थव्यवस्था के 200 क्षेत्रों में मांग बढ़ाएगा। इससे अकुशल और अर्द्धकुशल लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। देश में नए शहरों का निर्माण वक्त की जरूरत है। भारत में संसाधनों की कमी का हमेशा हवाला दिया जाता है। मगर यह संसाधनों से ज्यादा विचारशीलता की कमी है, जो भारत को आगे बढ़ने से रोकती है।
अर्थशास्त्र की राजनीति के विशेषज्ञ और एक्सीडेंटल इंडिया के लेखकनरेंद्र मोदी के एक शानदार विचार को उनकी सरकार ने ′सब को खुश करने वाले रद्दोबदल′ में तब्दील कर दिया है। नए शहरों के वायदे को महज मरम्मत के एक कार्यक्रम से प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
सौजन्य :-अमर उजाला , 04,09,2015
चौदह महीने बाद यह कहा जा सकता है कि देश के पास स्मार्ट शहरों को लेकर एक कार्यक्रम है। हालांकि वृहत कार्यक्रम की शुरुआत की बाट जोहने वाले मतदाताओं का उत्साह धरा रह गया है। इस कार्यक्रम को लेकर यही कहा जा सकता है, ′न खुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम′। देश में कुल 98 स्मार्ट शहर होंगे, लेकिन इनमें नए शहर नहीं होंगे। स्मार्ट शहर को एक ऐसे शहर के तौर पर परिभाषित किया जाता है, जो अपने निवासियों को बेहतर जिंदगी देने के लिए जरूरी बुनियादी संरचना रखता हो। जहां निवासियों के हितों का विशेष ध्यान रखते हुए स्वच्छ व टिकाऊ पर्यावरण के साथ-साथ स्मार्ट समाधानों को तरजीह दी जाती हो। हालांकि फिलहाल यह साफ नहीं है कि स्मार्ट शहरों को लेकर दूसरे देशों से जो समझौते हुए हैं, उनका क्या होगा। दरअसल, स्मार्ट सिटी की परिभाषा क्या होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। इसके लिए फंडिंग की जो व्यवस्था है, वह पूरी तरह से अपर्याप्त दिख रही है। चुने गए शहरों को दो करोड़ रुपये मिलेंगे। वहीं, दूसरे चरण में चुने गए 20 शहरों को पहले वर्ष 200 करोड़ और फिर अगले तीन वर्षों तक प्रत्येक शहर को हर वर्ष 100 करोड़ रुपये मिलते रहेंगे। केंद्र सरकार ने कुल तीन लाख करोड़ रुपये का वायदा किया है, जबकि हकीकत यह है कि अगले दस वर्षों में शहरी बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए 39 लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी।
अब उत्तर प्रदेश को ही लीजिए। क्षेत्रफल के मामले में यह तकरीबन यूनाइटेड किंगडम (यानी इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड) के बराबर है, मगर इसकी आबादी वहां की तिगुनी से भी ज्यादा है। कृषि से उद्योग व सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में तब्दील होने के साथ ही उत्तर प्रदेश में शहरीकरण का बढ़ना तय है। ऐसे में, इस राज्य को नए शहरों की जरूरत है, न कि पुराने 13 शहरों के कायाकल्प की। नहीं तो इस कार्यक्रम की हालत भी जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन की तरह होगी, जिसमें सरकार खर्च तो खूब करेगी, मगर नतीजे न के बराबर होंगे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी के एक शानदार विचार को उनकी सरकार ने ′सब को खुश करने वाले रद्दोबदल′ में तब्दील कर दिया है। इससे इन्कार नहीं कि शहरी भारत और स्थानीय सरकारों को मदद और नए विचारों की जरूरत है। यह भी सही है कि अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत) की अपनी जरूरत है। मगर नए शहरों के विचार की अनदेखी क्यों की जा रही है? ऐसा नहीं है कि नए शहरों के निर्माण से सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी, मगर कुछ बदलाव तो जरूर आएगा। अफसोस की बात यह है कि नए शहरों के वायदे को महज मरम्मत के एक कार्यक्रम से प्रतिस्थापित किया जा रहा है। आलम यह है कि आज शायद ही ऐसा कोई शहर हो, जो पूरी ईमानदारी से चौबीस घंटे जलापूर्ति का वायदा कर सके। मुंबई को छोड़कर देश का कोई भी शहर बिजली आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर होने का दावा नहीं कर सकता। सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था ऐसी है कि मध्यवर्गीय भारतीयों के दिन के दो से चार घंटे काम पर जाने और लौटने में खर्च हो जाते हैं।
भारत में तकरीबन 53 शहर दस लाख से ज्यादा आबादी वाले हैं। ये शहर जनसंख्या विस्फोट के कगार पर खड़े हैं। भूमि अधिग्रहण जरूर एक मुद्दा है, मगर उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस परियोजना को बेहतर ढंग से नियोजित कर एक रास्ता दिखाया है। निवेश के केंद्र स्थापित करने की नीति में खेती की जमीन पर खास ध्यान दिया जाता है, क्योंकि इसे अधिगृहीत करना आसान होता है। नए शहरों के निर्माण की नीति को इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए। शुरुआत दस स्मार्ट शहरों के निर्माण से की जा सकती है। इससे न केवल आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि लोगों की आकांक्षाएं पूरी होने के साथ ही विकास को भी गति मिलेगी। जीडीपी के नए आंकड़े बताते हैं कि विकास के लिए जरूरी यह है कि भारत बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाए। नए शहरों का निर्माण अर्थव्यवस्था के 200 क्षेत्रों में मांग बढ़ाएगा। इससे अकुशल और अर्द्धकुशल लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। देश में नए शहरों का निर्माण वक्त की जरूरत है। भारत में संसाधनों की कमी का हमेशा हवाला दिया जाता है। मगर यह संसाधनों से ज्यादा विचारशीलता की कमी है, जो भारत को आगे बढ़ने से रोकती है।
अर्थशास्त्र की राजनीति के विशेषज्ञ और एक्सीडेंटल इंडिया के लेखकनरेंद्र मोदी के एक शानदार विचार को उनकी सरकार ने ′सब को खुश करने वाले रद्दोबदल′ में तब्दील कर दिया है। नए शहरों के वायदे को महज मरम्मत के एक कार्यक्रम से प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
सौजन्य :-अमर उजाला , 04,09,2015
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