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अंग्रेजों की यातनाएं भी श्रीकांत सिंह चौहान को नहीं झुका सकीं, विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में दान कर दी अपने हिस्से की सारी जमीन

अंग्रेजों की यातनाएं भी श्रीकांत सिंह चौहान को नहीं झुका सकीं

जन्म शताब्दी (26 जुलाई) विशेष 
- भारत छोड़ो आंदोलन में छात्रों के विशाल जुलूस का नेतृत्व करते हुए दी थी गिरफ्तारी

- विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में दान कर दी अपने हिस्से की सारी जमीन

- 1957 में कांग्रेस का टिकट लेने से कर दिया था इंकार

- 16 फरवरी 2020 को 94 साल की अवस्था में ली थी अंतिम सांस

रायबरेली। स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. श्रीकान्त सिंह चौहान की आज 26 जुलाई को जन्म शताब्दी है। सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया। अनेक बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में देश भर में छात्र आन्दोलन हुए। श्रीकान्त जी ने भी छात्रों के विशाल जुलूस का नेतृत्व किया, भारत माता की जय, वन्दे मातरम् के नारे लगाते हुए आगे बढ़ते रहे। उन्हें गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया गया। अनेकों यातनाएं दी गईं, तनहाई में रखा गया, डराया धमकाया गया, आर्थिक दंड भी दिया गया परंतु उन्होंने माफ़ी नहीं मांगी।

उनकी पुत्री श्रीमती निरुपमा सिंह ने बताया कि बचपन से ही श्रीकान्त जी में देशभक्ति की भावना थी। रिहा होने के बाद एक बार फिर डलमऊ में गांधी चौरा में शहीद दिवस मनाने के अपराध में उन्हें गिरफ्तार किया गया। उनके हाथों में हथकड़ी डाल कर तीन मील पैदल दौड़ाते हुए ले गये और डलमऊ जेल में बन्द कर दिया गया। वहां से छूटने के बाद वे लगातार साथियों के साथ क्रान्तिकारी गतिविधियों में लगे रहे। 
  सन् 1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद 1950 के दशक में श्रीकान्त जी ने अपने हिस्से की ज़मीन भूदान को दान कर दी और संत विनोबा जी के भूदान आंदोलन के प्रति समर्पित हो गए। सन् 1957 के जनरल चुनाव में उन्हें सलोन विधानसभा से विधायक के लिए टिकट दिया गया लेकिन उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि वे भूदान के कार्य में समर्पित हैं तथा राजनीति में नहीं आ सकते। वे भूदान यज्ञ समिति के महासचिव रहे और इस कार्य के सिलसिले में कई हज़ार मील पैदल चले और लाखों एकड़ भूमि भूमिहीनों को आवंटित की। रायबरेली और डलमऊ के बीच ऊसर में उन्होंने एक गांव बसाया जिसका नाम 'विनोबापुरी' रखा। 
सन् 1962 के भारत चीन युद्ध में विस्थापित हुए तिब्बतियों को बसाने के लिए श्रीकान्त जी ने देहरादून में 200 बीघा भूमि आवंटित करके एक कॉलोनी बसाई। आज भी यह कॉलोनी और वहां बनी मॉनेस्ट्री देहरादून का एक दर्शनीय स्थल है। सन् 1965 में भारत सरकार ने श्रीकांत जी को सहकारी खेती की शिक्षा के लिए इस्राइल भेजा। वहां वे 3 वर्ष तक रहे और डिप्लोमा लेकर लौटे। 
देहरादून में ही रहते हुए वे समाज सेवा करते रहे। उन्हें बद्रीनाथ टेंपल कमेटी का सदस्य मनोनीत किया गया जिसके अंतर्गत उन्होंने उत्तराखंड के मंदिरों का रखरखाव और जीर्णोद्धार का कार्य किया। 

वे बताती हैं कि गांधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने आजीवन खादी धारण की। वे स्त्री शिक्षा के हिमायती थे। चरखा चलाना, कृषि और गरीबी उन्मूलन को बढ़ावा देते थे। श्रीकान्त जी ने कभी कोई राजनीतिक पद स्वीकार नहीं किया और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को दी जाने वाली राजनीतिक पेंशन भी नहीं ली। सही मायनों में वे एक देशभक्त, समाज सेवी और संत पुरुष थे।
16 फरवरी 2020 को रायबरेली के सिविल लाइंस स्थित निजी निवास में 94 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली। श्रीकान्त जी का जन्म 26 जुलाई 1925 को ग्राम पाहो जिला रायबरेली में हुआ था। आज उनकी जन्मशताब्दी है।

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