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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

स्मार्ट तो ठीक, पर नए शहर कहां?

स्मार्ट तो ठीक, पर नए शहर कहां? (अमर उजाला) इन उम्र से लंबी सड़कों को, मंजिल पे पहुंचते देखा नहीं। बस दौड़ती, फिरती रहती हैं, हमने तो ठहरते देखा नहीं। थकी-हारी शहरी जिंदगी के दर्द को बेहतर ढंग से बयान करने के लिए ही गुलजार ने ये पंक्तियां लिखी थीं, जो शायद राजनीतिक वायदों के पूरा होने के कभी खत्म न होने वाले इंतजार को भी व्यक्त करती हैं। युवा, मध्यवर्ग और शहरी भारतीय, नरेंद्र मोदी के 2014 के चुनावी अभियान के ये सभी मुरीद थे। इसकी वजह यह थी कि इसमें समाधान का वायदा था। इसमें सबसे शानदार वायदा था सौ स्मार्ट शहर बनाने का। अपनी बदहाल जिंदगी से त्रस्त शहरी भारतीयों को इस वायदे में बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखी। मोदी ने इस चुनौती में मौका देखा, और एक कामयाब नारे का सूत्रपात कर दिया। मगर यह कोई चुनावी नारा नहीं था। भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनावी घोषणापत्र में कहा गया था, ′ह...

जितनी बार गिरें, उतनी बार खड़े होना चाहिए

मैं राजकपूर, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा जैसे निर्माता-निर्देशकों की फिल्में देखकर ही बड़ा हुआ हूं। पला-बढ़ा हिंदी फिल्मों के सितारों और निर्देशकों के बीच, लेकिन मैंने जब सोचा की मुझे फिल्मों में आना है तो मदद करने वाला कोई नहीं था। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है अच्छा ही हुआ कि किसी ने मदद नहीं की। मेरे पिता या मामाजी (ख्यात अभिनेता जितेन्द्र ) फिल्म इंडस्ट्री में हैं तो उनके लिहाज से एक आध मौका मुझे मिल जाता, लेकिन अपने पैरों पर तो नहीं खड़ा हो पाता। शुरुआत में मदद पाने वाले अगर आगे चलकर असफल हो जाएं तो वे फिर खड़े नहीं रह पाते। मुझे कभी कोई सहायता मिली नहीं। मैंने तो करीब 10-15 साल लगातार नाकामयाबी देखी। एक एक्टर (उफ़ ये मोहब्बत,1996) के रूप में भी और बतौर निर्देशक भी मेरी पहली फिल्म ‘आर्यन’ (2006) नाकाम रही। यही वजह है कि आज कामयाब होने पर भी मैरे पैर जमीन पर मजबूती से टिके हैं। मैं आज भी वही साधारण इंसान हूं। कहते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री के स्थापित परिवारों से जुड़े बच्चों को आसानी से मौके मिल जाते हैं। कहा जाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में थोड़े भी कनेक्शन हो तो चीजें आसान हो जाती हैं,...

लिखना तनी रस्सी पर चलने के समान

मैं गहरी उदासियों के गीत सुनना चाहती हूँ। इश्क़ में सराबोर टूटती हुई सिसकियों हिचकियों और दरकती हुई हँसी में भींगे हुए गीत। लेकिन घर के दोनों बच्चे और उन बच्चों के दम पर हँसती-चहकती गृहस्थी उदासियों को सिरे से नकार देती है। इसलिए तमाम सारे डर और तवील उदासियों की पतवार उखाड़कर अपनी बालकनी पर के गमलों में हरियाली उगाते हैंए रंगीन मधुमालती के झाड़ रोपते हैं और काँटों के बीच से दहकते बुगनवेलिया को देखकर ख़ुश होते फिरते हैं। घर भरा-पूरा है। बच्चों की ख़ातिर कामवालियाँ सालों से मेरी तमाम ज़्यादतियाँ बर्दाश्त करती रहती हैं, मेरा साथ नहीं छोड़तीं। मेरे मम्मी-पापा, सास-ससुर अपनी-अपनी सहूलियतों को दरकिनार कर हमारी सहूलियत को मज़बूत बनाते रहते हैं। मैं वैसी एक ख़ुशनसीब औरत हूँ जिसके एक फोन कॉल पर उसका पूरा सपोर्ट सिस्टम अपनी सारी ताक़त लगाकर उसकी ज़रूरतें पूरी करता है। और मैं दुष्ट औरत उनके इस निस्सवार्थ मोहब्बत का ख़ूब बेजां इस्तेमाल भी करती हूँ। बात मई-जून की है। मैं एक नए प्रोजेक्ट के लिए स्क्रिप्ट लिखने की दुरूह कोशिश में पागल हुई जा रही थी। लॉन्ग फार्माटट मैंने कभी किया नहीं है, इसलिए बार-बार...

खुद से बात

यूं बॉस से मुलाकात थोड़ी ही देर के लिए होती है, लेकिन उनके भीतर बॉस से बातचीत चल रही होती है। उन्होंने महसूस किया कि वह अकेले में भी किसी न किसी से बात करते रहते हैं। बस अपने से ही बात नहीं हो पाती। ‘अपने से बात करिए न! और ऐसे बात करिए, जैसे आप अपने बेहतरीन दोस्त से करते हों।’ यह कहना है डॉ. इसाडोरा अलमान का। वह मशहूर साइकोथिरेपिस्ट हैं। मानवीय रिश्तों पर कमाल का काम किया है। उनकी चर्चित किताब है, ब्लूबड्र्स ऑफ इम्पॉसिबल पैराडाइजेज। हम सब अपने से बात करते हैं। यह अलग बात है कि हमें पता ही नहीं चलता। अनजाने में जो बात हो रही होती है, वह किसी न किसी से बात का हिस्सा होती है। हम अक्सर दूसरे से बात कर रहे होते हैं। कभी किसी से सवाल कर रहे होते हैं। कभी किसी को जवाब दे रहे होते हैं। हम बात अपने से कर रहे होते हैं, लेकिन उसमें शामिल कोई दूसरा ही होता है। असल में, हम जब अपने से बात करें, तो कोई दूसरा उसमें नहीं होना चाहिए। हम अकेले हों, तो सिर्फ अपने से बतियाएं। अपना ही हालचाल पूछें। अपने ही दिल की सुनें। हम अक्सर दूसरों की ही सुनते रहते हैं। या सुनाते रहते हैं। हम अपने को ही नहीं सुन पा...

बच्चों की किताबों का एक नया चेहरा

रेडियो के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने के तुरंत बाद से हमारी दुनिया में किताबों के अंत की बात उठती रही है। पिछले कुछ वर्षों में व्यापक हुई डिजिटल क्रांति ने इस डर को और बढ़ाया है। लेकिन यही डिजिटल क्रांति संख्या के स्तर पर छोटे समुदायों की भाषा के लिए संजीवनी सिद्ध होती दिख रही है। एक वर्ष पहले शुरू हुआ स्टोरीवीवर प्रथम बुक्स का खुला डिजिटल मंच है, जिस पर लेखक, अनुवादक, संपादक और चित्रकार बच्चों की सामग्री उपलब्ध करवाते हैं। उपयोग करने के लिए कोई भी इस सामग्री को डाउनलोड कर सकता है। कुछ उत्साही भाषा-प्रेमी इसका इस्तेमाल अपनी-अपनी भाषा में बच्चों को पढ़ाने के लिए कर रहे हैं। ईरान, इराक, सीरिया और तुर्की तक बिखरे अल्पसंख्यक कुर्द समुदाय की बोलियों का समूह है। कुर्द समुदाय की अस्मिता से जुड़ी यह भाषा पश्चिम एशिया की सामरिक-राजनीतिक स्थितियों के कारण खतरे में है। इसे बोलने वाला समुदाय लगातार अपने परंपरागत क्षेत्रों से विस्थापित हो रहा है। नए देशों में नई भाषा बोलने-बरतने का दबाव कुर्द बच्चों को तेजी से अपनी संस्कृति से काट रहा है। कुर्दी घरों में वयस्कों के आपसी वार्तालाप में बच्चों को यह...

मां का आत्मज्ञान

शमीम शर्मा एक बार किसी बच्चे ने अपनी मम्मी से पूछा-यह बताओ कि आपको मेरी सारी समस्याओं को हल करना कैसे आता है? मां ने बच्चे को समझाते हुए कहा- ईश्वर हमें मां बनाने से पहले हमारा इम्तिहान लेता है कि क्या हम बच्चों की समस्याओं को सुलझाना जानती हैं या नहीं? और अगर हम उस इम्तिहान में पास हो जायें तभी हमें मम्मी बनाता है। बच्चा मुस्कराकर बोला-हां समझ गया, अगर आप उस इम्तिहान में फेल हो जातीं तो भगवान आपको पापा बना देता। बच्चे के इस अनुमान में कितनी सच्चाई है, कहा नहीं जा सकता पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि जैसे ज्योतिषी भविष्य को पढ़ लेता है, वैसे ही मां अपने बच्चे का दिल पढ़ लेती है। ज्योतिषी तो फिर भी गलत हो सकता है पर मां की इबारत कभी गलत नहीं होती। कुदरत का क्या कमाल है कि जब बच्चे के तुतलाहट भरे शब्दों को कोई माई का लाल नहीं समझ सकता, तब सिर्फ मां बता देती है कि बच्चा क्या कह रहा है। यह तो वही बात हुई कि जैसे डॉक्टर के लिखे को सिर्फ कैमिस्ट ही पढ़ सकता है। मां को तो नींद में भी पता चल जाता है कि उसका बच्चा कहां से उघाड़ा रह गया है। लिहाजा उठकर बच्चे को रजाई-कम्बल उढ़ाने लगती है। कुछ दिन पहले मेर...

अधिक अंक की आत्मघाती दौड़

प्रधानमंत्री मोदी को भी अपने मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ में बोर्ड इम्तिहान दे रहे बच्चों को संदेश देना पड़ा। जाहिर है कि परीक्षा, उसके परिणाम और ज्यादा नंबर लाने की होड़ बच्चों का बचपन और सीखने की स्वाभाविक गति, दोनों को प्रभावित कर रही है। पिछले साल मध्य प्रदेश में कक्षा दस के बोर्ड के इम्तिहान के नतीजे आने के 12 घंटों में आठ बच्चों ने आत्महत्या कर ली और उनमें से भी आधी बच्चियां थीं। वहां बिताया समय और बांची गई पुस्तकें उनको इतनी-सी असफलता को स्वीकार करने और उसका सामना करने का साहस नहीं सिखा पायीं। परीक्षा देने जा रहे बच्चे खुद के याद करने से ज्यादा इस बात से ज्यादा चिंतित दिखते हैं कि उनसे बेहतर करने की संभावना वाले बच्चे ने ऐसा क्या रट लिया है जो उसे नहीं आता। असल में प्रतिस्पर्धा के असली मायने सिखाने में पूरी शिक्षा प्रणाली असफल ही रही है। यह तो साफ जाहिर है कि बच्चे न तो कुछ सीख रहे हैं और न ही जो पढ़ रहे हैं, उसका आनंद ले पा रहे हैं। बस एक ही धुन है या दबाव है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं। कई बच्चों का खाना-पीना छूट गया है। याद करें चार साल पहले के अखबारों...

बुनियाद में नमी

पंकज यानी कमल की प्रकृति ही कीचड़ में खिलना है लेकिन हमीरपुर का पंकज संभवत: इतना मजबूत नहीं था। इसीलिए उसने होम वर्क न करने की इतनी बड़ी सजा खुद को दी। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में सातवीं के अबोध बालक द्वारा मिट्टी का तेल छिड़क कर आत्महत्या करने का मामला गहरे तक उदास करने वाला है। यही वक्त है, जब यह परखा जाए कि व्यक्तित्व की बुनियाद में कहीं नमी तो नहीं रह गई। बुनियाद में नमी हो तो इमारत बनती ही नहीं है और बन भी जाए तो अधिक देर तक टिकती नहीं है। पंकज कुमार की आत्महत्या सोचने पर मजबूर करती है कि क्या नई पौध के लिए शिक्षा या उससे जुड़ी अपेक्षाओं को बोझ असहनीय हो चला है? क्या होमवर्क का दबाव उन्हें तनावग्रस्त कर रहा है? क्या माता-पिता बच्चों की क्षमता जाने बगैर उन पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं? बच्चों के मन में क्या चल रहा है, उसे टटोलने की फुर्सत क्या किसी के पास नहीं है? दरअसल किसी भी मासूम हंसी के पीछे के दर्द देखने के लिए समय, संवाद और संवेदना चाहिए। दुर्भाग्यवश यही सब गायब प्रतीत हो रहा है। सबसे बड़ा पक्ष यह है कि दौर प्रतियोगी है तो वातावरण भी प्रतियोगी होगा। यही प्रतियोगिता कई...

बच्चों को हमारा साथ चाहिए महंगे खिलौने नहीं

बच्चों की परवरिश हमारे समाज में किस तरह उपेक्षा का शिकार बनती जा रही है, इसका अंदाजा ‘इप्सॉस मोरी ग्लोबल ट्रेंड सर्वे’ के नए अध्ययन से लगाया जा सकता है। इस सर्वे ने पाया है कि करीब 77 प्रतिशत भारतीय अभिभावक अपने बच्चों के व्यवहार के बारे में कोई जिम्मेदारी लेने से बचते हैं। जाहिर है, इस तथ्य को नकारते हुए दलील दी जाएगी कि ऐसा संभव ही नहीं, क्योंकि अभिभावक दिन-रात अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए जुटे रहते हैं। अपने बच्चों को दुनिया भर की सुविधाएं मुहैया करवाना व उनके व्यवहार की जिम्मेदारी लेना, दो अलग बातें हैं। ‘छोटी-छोटी बातों पर बच्चों का एक-दूसरे को धक्का दे देना, चीजों पर गुस्सा उतारना, भाई-बहन, सहपाठी या फिर टीचर को ऊंची आवाज में जवाब देना’, माता-पिता इसे दोस्तों की संगत, कार्टून पात्रों के प्रभाव और समाज के बदलते माहौल से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के दुर्व्यवहार को लेकर किए गए कारणों की गिनती में वे स्वयं को किसी भी रूप में नहीं गिनते, परंतु बच्चों के नकारात्मक व्यवहार का उत्तरदायित्व माता-पिता का है और उसका विश्लेषण करना उनके लिए आवश्यक है। एम्स के बाल चिकित्सा विभाग के शोध स...

भागीरथी के तट पर स्थित संस्कृत विद्यालय को है भागीरथ का इंतजार

भागीरथी के तट पर स्थित संस्कृत विद्यालय को है भागीरथ का इंतजार  सरकारी योजनाओं से दूर संस्कृत विद्यालय जिम्मेदार मौन        रायबरेली जनपद का एक मात्र गुरुकुल शिक्षा पद्धति से संचालित माध्यमिक स्कूल व महाविद्यालय सरकार व विभागीयअधिकारियों की उपेक्षा के कारण दमतोड़ रहे है । लेकिन जिम्मेदार अंजान हैं । उक्त गुरुकुल में सरकार द्वारा संचालित योजनाओं के लाभ से छात्र कोसों दूर हैं ।           श्री राधाकृष्ण महाविद्यालय डलमऊ की स्थापना वर्ष 1956 में परम् आदर्श महामण्ड़ले श्वर स्वामी देवेंद्रा नन्द गिरि ने अपने गुरु समाधिष्ठ स्वामी बद्रीनारायण गिरि की स्वीकृति लेकर की थी । जिसकी मान्यता माध्यमिक शिक्षा परिषद लखनऊ व स्नातक , परास्नातक की मान्यता सम्पूर्णा नन्द विश्वविद्यालय वाराणसी से ली गई थी । गुरुकुल के संस्थापक स्वामी देवेंद्रा नन्द गिरि ने बताया कि विद्यालय के प्रारम्भ के दौरान प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी तब संस्कृत भाषा को लेकर नए कानून बने लेकिन समय के साथ साथ सरकारें बदली , सरकारों की तुष्टीकरण नीति कारण संस्कृत भा...

आशीष सिंह सामुदायिक रेडियो ,मनरेगा ,और कला पर किताब लिखने के बाद अब एक कला प्रदर्शनी के लिए सलाहकार का काम करेंगे

आशीष सिंह  सामुदायिक रेडियो ,मनरेगा ,और  कला पर एक किताब लिखने के बाद अब एक कला प्रदर्शनी के लिए सलाहकार का  भी काम करेंगे / रायबरेली ज़िले के उमरामऊ निवासी आशीष सिंह कला पर एक किताब लिखने के बाद अब एक कला प्रदर्शनी के लिए सलाहकार का काम कर रहे हैं. दिल्ली में "द  ड्रिफ्टिंग कैनवास" के नाम से हो रही यह प्रदर्शनी भारत में इस रूप पहली बार हो रही है. इससे पहले यह प्रदर्शनी बारह देशों में आयोजित की जा चुकी है. इसमें दुनिया के ग्यारह महान कलाकारों जैसे वैन-गॉग, मोने, हेनरी रुशो की पेंटिंग्स को मल्टीमीडिया रूप में तेरह विशालकाय पर्दों पर दिखाया जा रहा है. ये परदे सात हज़ार वर्ग मीटर के एक हॉल में चारों तरफ लगे हैं. यहाँ आप प्रवेश करके चाहे जिस दिशा में घूमे आपको सुखद अनुभव देता संगीत और अप्रतिम पेंटिंग्स दिखाई देंगी. इसके साथ ही भारत के चुनिंदा इकतालीस कलाकारों जैसे एस.के. साहनी, प्रशांत कलिता, सुकान्त खुराना, कंचन चंदर, अर्पणा कौर, आनंदमॉय बनर्जी की पेंटिंग्स भी प्रदर्शनी में लगायी जा रही हैं. आशीष के मित्र अक्षत सिन्हा भारतीय और अंतर-राष्ट्रिय कला और कलाकारों के...

स्मार्टफोन ओर हमारा सामाजिक अर्थशास्त्र

भारत सचमुच विचित्रताओं का देश है। जहां पूरी दुनिया में स्मार्टफोन की मांग लगातार बढ़ रही है, वहीं भारत में फीचर फोन अब भी लोगों की पहली पसंद हैं, जो 2-जी नेटवर्क पर काम करते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए नोकिया अपने सस्ते फीचर फोन 3310 के साथ भारत में पुन: वापसी कर रही है, ताकि वह उन भारतीय ग्राहकों को लुभा सके, जो महंगे स्मार्टफोन नहीं खरीद सकते। सिंगापुर, ताईवान व ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने जहां 2-जी नेटवर्क को अलविदा कह दिया है, वहीं भारत में 2-जी नेटवर्क के सहारे साधारण फीचर फोन कम कीमत, ज्यादा बैटरी लाइफ, संगीत सुनने की सुविधा व बेसिक इंटरनेट सेवा के साथ भारत में लोगों को ऑनलाइन जोड़ रहा है। फीचर फोन से तात्पर्य उन मोबाइल फोन से है, जिनका प्रयोग वॉयस कॉलिंग और टेक्स्ट मैसेज के लिए किया जाता है। इसके अलावा इनमें बेसिक मल्टीमीडिया सुविधा होती है, जिससे ऑडियो-वीडियो सुविधाओं का आनंद उठाया जा सकता है। ये बहुत कम कीमत में उपलब्ध हैं। वहीं पर स्मार्टफोन इंटरनेट आधारित हैं, जो बात करने के अलावा इंटरनेट की दुनिया में एप सुविधाओं के साथ असीमित विकल्प देते हैं। ये फीचर फोन के मुकाबले...

क्या कहती है स्कूली बच्चों में लगातार बढ़ रही हिंसा

वे तीनों एक ही उम्र के थे, लगभग 14 साल। एक ही मोहल्ले में रहते थे। एक ही स्कूल में पढ़ते भी थे। साथ आते-जाते, खेलते-कूदते। एक दिन कुछ राहगीरों ने पास के नाले से चीखें सुनीं। लोगों न...