पत्रकारिता दिवस पर विशेष
अनुज अवस्थी
‘समय और समाज के सन्दर्भ में सजग रहकर नागरिकों में दायित्व बोध कराने की कला को पत्रकारिता की संज्ञा दी गयी है।’ समाज हित में सम्यक प्रकाशन को पत्रकारिता कहा जाता है। असत्य, अशिव और असुन्दर पर सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की शंख ध्वनि ही पत्रकारिता है। मनुष्य स्वभाव की हीन व्यत्तियों को उत्तेजना देकर, हिंसा-द्वेष फैलाकर, बड़ों की निन्दाकर, लोगों की घरेलू बात पर कुत्सिक टीका-टिप्पणी कर, अमोद-प्रमोद का अभाव अश्लीलता से पूर्ण करने की चेष्टा कर तथा ऐसे ही अन्य उपायों से समाचार पत्र की बिक्री और चैनलों का क्रेज बढ़ाया जा सकता है, महामूर्ख धनी की प्रशंसा के पुल बांधकर तथा स्वार्थ विशेष के लोगों के हित चिन्तक बनकर भी रुपया कमाया जा सकता है, देशभक्त बनकर भी स्वार्थ सिद्धि की जा सकती है, लेकिन सब सब पत्रकारिता की आड़ से हो तो कितना शर्मनाक है? आज की पत्रकारिता में उतरे स्वार्थी तत्व समाचार पत्र और पत्रकार शब्द के गौरव को नष्ट करने में लगे है। ‘लास ऐन्जेल्स टाइम्स’ के ‘ओटिस शैलेलर’ का मत है कि ‘सत्य का सामाजिक मूल्य तो है ही फिर चाहे सत्य से किसी को चोट पहुंचे या फिर कोई उसकी आंच में झुलसे। पत्रकार सत्य का प्रवक्ता होता है उसके सत्य से कुछ को चोट पहुंचती है कुछ अव्यवस्था पर सबकी दृष्टि जाती है’, किन्तु दुर्भाग्य है कि जिस पत्रकारिता ने चेतना का संचार किया था वही आज चेतना के हनन का निद्र्वन्द्व माध्यम बनी चुकी है। आजादी के नाम पर शोषण के पैमाने झलक रहे हैं। ‘मिशन’ के स्थान पर ‘मशीन’ और ‘प्रोफेशन’ के स्थान पर ‘सेन्सेशन’ बनकर पत्रकारिता गर्त में जा रही है।
आज 30 मई को हर वर्ष हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। 826 ई. से 1876 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का ‘कविवचन सुधापत्र’ 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया थाय परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। ‘उदंत मार्तंड’ के बाद प्रमुख पत्र है-बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872)। इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था ‘समाचार सुधावर्षण’ जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का ‘विश्वामित्र’ ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ़ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलने शुरू हुये उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबार शासकों की भाषा में निकलते थे। इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। ये अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासकों की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुरूख भोगते रहे। पत्रकारिता समाज में ऊर्जा भरने का एक आक्रामक साधन है। खतरनाक भी, उस्तरे की तरह- बंदर के हाथ में पड़ गया तो खैर नहीं। इसीलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि हाथ सही हों। कुशल और सधे हुए। पत्रकारिता सूचना देती है और दिशा भी परन्तु आज स्थिति कुछ जटिल सी हो गयी है। यह समझना आसान नहीं रह गया है कि पत्रकारिता की भूमिका क्या है ? विज्ञान और प्रोद्योगिकी का प्रभाव इस विधा पर भी बहुत पड़ा है। मशीनों ने जहाँ इसकी धार तेज की है, वहीं भाषा को बेढंगा किया है। सवाल यह भी है कि मिडिया से कोई कितनी उम्मीद करे? मिडिया से बहुत बड़ी आशा करना भी बेवकूफी है, क्योकि वह बड़ी पूंजी के हाथ में है। धन्धा है। करोबार है। या यूं कहें कि काजल की कोठरी है तो कुछ गलत न होगा। जिसने पैसा लगाया है उसे कमाना भी तो है। फिर चाहे जैसे। कुछ हिन्दी अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या भले ही उन्हें श्रेष्ठड्ढता की झूठी श्रेणी में खड़ी कर रही हो मगर यह संख्या इसलिए नहीं बढ़ रही कि उसमें देश-दुनिया की खबरें हैं, बल्कि इसलिए कि लोगों को अखबार चाहिए। इलेक्ट्रिानिक मिडिया से भी अधिक आशा बेकार ही है। सच्चाई से दूर कल्पना रोमांच की गुदगुदी और अश्लील हास्य को परोस कर टीआरपी बढ़ाने की होड़ मची है। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो खोजी पत्रकारिता का दंभ भरते हैं। खोजी पत्रकारिता का मतलब केवल घोटालों का भंडाफोड़ ही नहीं है बल्कि सामाजिक-जातिगत-धार्मिक अन्याय, उत्पीडन और मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करना भी है। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के कॉरपोरेटीकरण के साथ दोनों तरह की खोजी पत्रकारिता की मौत हो चुकी है। खासकर उस खोजी पत्रकारिता की जो अपनी पहल पर सरकारी दस्तावेजों की पड़ताल, स्रोतों को खंगालने, दूर-दराज के इलाकों की धूल फांकने और तथ्यों की छानबीन करके घोटालों के साथ-साथ सामाजिक अन्याय, भेदभाव और जुल्म-उत्पीडन के मामलों का पर्दाफाश करती थी। कहने की जरूरत नहीं है कि खोजी पत्रकारिता की मौत ने आज की कॉरपोरेट पत्रकारिता के ‘लोकतांत्रिक घाटे’ को और बढ़ा दिया है तथा उसकी साख को और कमजोर कर दिया है। धीरे-धीरे धनखोर हुआ मिडिया वास्तविक पत्रकारिता को निगलता जा रहा है। आज पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। ‘लॉर्ड रोजबरी’ ने अखबारों की उपमा नियाग्रा के ‘प्रपात’ से की है तथा इस उपमा की जानकारी के बिना गांधीजी ने स्वतंत्र रूप से कहा था-‘अखबार में भारी ताकत है। परन्तु जैसे निरंकुश जल-प्रपात गाँव के गाँव डुबो देता है, फसलें नष्ट कर देता है, वैसे ही निरंकुश कलम का प्रपात भी नाश करता है। यह अंकुश यदि बाहर से थोपा गया हो तब वह निरंकुशता से भी जहरीला हो जाता है। भीतरी अंकुश ही लाभदायी हो सकता है।’ यदि यह विचार-क्रम सच होता तब दुनिया के कितने अखबार इस कसौटी पर खरे उतरते ? और जो बेकार है, उन्हें बन्द कौन करेगा? कौन किसे बेकार मानेगा? काम के और बेकाम दोनों तरह के अखबार साथ-साथ चलते रहेंगे। मनुष्य उनमें से खुद की पसन्दगी कर ले। आइये पवित्र पत्रकारिता दिवस पर हम ये संकल्प लें कि-
’‘जो सही है बात बोलेंगे, पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे।
साहिबों हम कलम के बेटे हैं कैसे दिन को रात बोलेंगे॥’’
(लखनऊ से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक पेपर के लेखक के अपने विचार है)
( अनुज अवस्थी )
अनुज अवस्थी
‘समय और समाज के सन्दर्भ में सजग रहकर नागरिकों में दायित्व बोध कराने की कला को पत्रकारिता की संज्ञा दी गयी है।’ समाज हित में सम्यक प्रकाशन को पत्रकारिता कहा जाता है। असत्य, अशिव और असुन्दर पर सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की शंख ध्वनि ही पत्रकारिता है। मनुष्य स्वभाव की हीन व्यत्तियों को उत्तेजना देकर, हिंसा-द्वेष फैलाकर, बड़ों की निन्दाकर, लोगों की घरेलू बात पर कुत्सिक टीका-टिप्पणी कर, अमोद-प्रमोद का अभाव अश्लीलता से पूर्ण करने की चेष्टा कर तथा ऐसे ही अन्य उपायों से समाचार पत्र की बिक्री और चैनलों का क्रेज बढ़ाया जा सकता है, महामूर्ख धनी की प्रशंसा के पुल बांधकर तथा स्वार्थ विशेष के लोगों के हित चिन्तक बनकर भी रुपया कमाया जा सकता है, देशभक्त बनकर भी स्वार्थ सिद्धि की जा सकती है, लेकिन सब सब पत्रकारिता की आड़ से हो तो कितना शर्मनाक है? आज की पत्रकारिता में उतरे स्वार्थी तत्व समाचार पत्र और पत्रकार शब्द के गौरव को नष्ट करने में लगे है। ‘लास ऐन्जेल्स टाइम्स’ के ‘ओटिस शैलेलर’ का मत है कि ‘सत्य का सामाजिक मूल्य तो है ही फिर चाहे सत्य से किसी को चोट पहुंचे या फिर कोई उसकी आंच में झुलसे। पत्रकार सत्य का प्रवक्ता होता है उसके सत्य से कुछ को चोट पहुंचती है कुछ अव्यवस्था पर सबकी दृष्टि जाती है’, किन्तु दुर्भाग्य है कि जिस पत्रकारिता ने चेतना का संचार किया था वही आज चेतना के हनन का निद्र्वन्द्व माध्यम बनी चुकी है। आजादी के नाम पर शोषण के पैमाने झलक रहे हैं। ‘मिशन’ के स्थान पर ‘मशीन’ और ‘प्रोफेशन’ के स्थान पर ‘सेन्सेशन’ बनकर पत्रकारिता गर्त में जा रही है।
आज 30 मई को हर वर्ष हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। 826 ई. से 1876 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का ‘कविवचन सुधापत्र’ 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया थाय परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। ‘उदंत मार्तंड’ के बाद प्रमुख पत्र है-बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872)। इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था ‘समाचार सुधावर्षण’ जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का ‘विश्वामित्र’ ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ़ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलने शुरू हुये उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबार शासकों की भाषा में निकलते थे। इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। ये अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासकों की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुरूख भोगते रहे। पत्रकारिता समाज में ऊर्जा भरने का एक आक्रामक साधन है। खतरनाक भी, उस्तरे की तरह- बंदर के हाथ में पड़ गया तो खैर नहीं। इसीलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि हाथ सही हों। कुशल और सधे हुए। पत्रकारिता सूचना देती है और दिशा भी परन्तु आज स्थिति कुछ जटिल सी हो गयी है। यह समझना आसान नहीं रह गया है कि पत्रकारिता की भूमिका क्या है ? विज्ञान और प्रोद्योगिकी का प्रभाव इस विधा पर भी बहुत पड़ा है। मशीनों ने जहाँ इसकी धार तेज की है, वहीं भाषा को बेढंगा किया है। सवाल यह भी है कि मिडिया से कोई कितनी उम्मीद करे? मिडिया से बहुत बड़ी आशा करना भी बेवकूफी है, क्योकि वह बड़ी पूंजी के हाथ में है। धन्धा है। करोबार है। या यूं कहें कि काजल की कोठरी है तो कुछ गलत न होगा। जिसने पैसा लगाया है उसे कमाना भी तो है। फिर चाहे जैसे। कुछ हिन्दी अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या भले ही उन्हें श्रेष्ठड्ढता की झूठी श्रेणी में खड़ी कर रही हो मगर यह संख्या इसलिए नहीं बढ़ रही कि उसमें देश-दुनिया की खबरें हैं, बल्कि इसलिए कि लोगों को अखबार चाहिए। इलेक्ट्रिानिक मिडिया से भी अधिक आशा बेकार ही है। सच्चाई से दूर कल्पना रोमांच की गुदगुदी और अश्लील हास्य को परोस कर टीआरपी बढ़ाने की होड़ मची है। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो खोजी पत्रकारिता का दंभ भरते हैं। खोजी पत्रकारिता का मतलब केवल घोटालों का भंडाफोड़ ही नहीं है बल्कि सामाजिक-जातिगत-धार्मिक अन्याय, उत्पीडन और मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करना भी है। लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के कॉरपोरेटीकरण के साथ दोनों तरह की खोजी पत्रकारिता की मौत हो चुकी है। खासकर उस खोजी पत्रकारिता की जो अपनी पहल पर सरकारी दस्तावेजों की पड़ताल, स्रोतों को खंगालने, दूर-दराज के इलाकों की धूल फांकने और तथ्यों की छानबीन करके घोटालों के साथ-साथ सामाजिक अन्याय, भेदभाव और जुल्म-उत्पीडन के मामलों का पर्दाफाश करती थी। कहने की जरूरत नहीं है कि खोजी पत्रकारिता की मौत ने आज की कॉरपोरेट पत्रकारिता के ‘लोकतांत्रिक घाटे’ को और बढ़ा दिया है तथा उसकी साख को और कमजोर कर दिया है। धीरे-धीरे धनखोर हुआ मिडिया वास्तविक पत्रकारिता को निगलता जा रहा है। आज पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। ‘लॉर्ड रोजबरी’ ने अखबारों की उपमा नियाग्रा के ‘प्रपात’ से की है तथा इस उपमा की जानकारी के बिना गांधीजी ने स्वतंत्र रूप से कहा था-‘अखबार में भारी ताकत है। परन्तु जैसे निरंकुश जल-प्रपात गाँव के गाँव डुबो देता है, फसलें नष्ट कर देता है, वैसे ही निरंकुश कलम का प्रपात भी नाश करता है। यह अंकुश यदि बाहर से थोपा गया हो तब वह निरंकुशता से भी जहरीला हो जाता है। भीतरी अंकुश ही लाभदायी हो सकता है।’ यदि यह विचार-क्रम सच होता तब दुनिया के कितने अखबार इस कसौटी पर खरे उतरते ? और जो बेकार है, उन्हें बन्द कौन करेगा? कौन किसे बेकार मानेगा? काम के और बेकाम दोनों तरह के अखबार साथ-साथ चलते रहेंगे। मनुष्य उनमें से खुद की पसन्दगी कर ले। आइये पवित्र पत्रकारिता दिवस पर हम ये संकल्प लें कि-
’‘जो सही है बात बोलेंगे, पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे।
साहिबों हम कलम के बेटे हैं कैसे दिन को रात बोलेंगे॥’’
(लखनऊ से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक पेपर के लेखक के अपने विचार है)
( अनुज अवस्थी )
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